Tuesday 19 April 2016

लक्ष्मी नारायण झरवाल (मीणा) साहब की किताब















मांच का द्वितीय युद्ध

मांच का द्वितीय युद्ध
मांच के प्रथम युद्ध में राव नाथू काम आ गया था । उसका पुत्र [राव मेदा]] किसी प्रकार युद्ध से भाग निकला था । मीन पुराण के अनुसार राव मेदा अब गाँव-गाँव में जाकर अपने मीणे साथियों को संघठित करने में जुट गया था । उनको संघठित कर राव मेदा ने स्वयं को शक्तिशाली बना लिया था । अपने ओजस्वी भाषणों के माध्यम से वह मीणा जाति में नवीन उत्साह की अपूर्व लहर सृजित कर उन्हें दूलहराय से अपनी पूर्व पराजय का बदला चुकाने हेतु संघर्ष के लिए तैयार करने लगा । अपने इस भ्रमण व ओजस्वी  भाषणों से मीणासमाज में उसने अपने को एक महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली व्यक्ति बना लिया था ।
एक दिन जब वह एकत्रित मीणा जनजाति के वीर योद्धाओं को युद्ध के लिए संबोधित कर रहा था तो बीच में ही एक मारण वीर ने कहा: "मीणा समाज की रक्षा हेतु आपका निर्णय अनुपम है । परंतु युद्ध करने के लिए हमारे पास पर्याप्त युद्ध सामग्री तो है ही नहीं ।" सामरिक-सामग्री के अभाव में हम अपने शत्रु पर विजय किस प्रकार प्राप्त कर सकेंगे ?" मारण के ये वचन सुनकर राव मेदा ने अपने एकत्रित साथियों को धैर्य बंधाते कहा कि "सरदारो यह हमारे साहस की घड़ी है । यह संघर्ष हमारी वीरता की कसौटी सिद्ध होगा । हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए । यदि इस अवसर पर हम साहस नहीं जुटा सके और हिम्मत-पस्त हो गए तो आगे आने वाली पीढ़ियाँ हम पर हसेंगी । हमें लज्जित करेंगी । स्वाधीनता खोकर जीवित रहने से तो मर जाना ही अच्छा है । यद्यपि इस दुर्ग में मेरे पिता नाथूराव, उनके पिता भौणराव, उनके पिता जयरासीराव, उनके पिता बीसाराव और उनके पिता आसाराव का धन संचित है । वह धन इतना है कि उससे हम 23 हज़ार सैनिकों की सेना तैयार कर सकेंगे । अतः यदि आप सहायता दें तो में यहाँ खाद्य पदार्थों व शस्त्रों का ढेर लगा दूंगा । साथियो यह अपने धर्म का युद्ध है । इसमें विजयी होने पर स्वर्ग मिलेगा । भला मृत्यु से क्या डरना ? एक दिन मरना सबको है । पशु-पक्षी भी अपनी स्वतंत्रता के लिए प्राण न्यौछावर कर देते हैं ।अतीत काल से मत्स्य देश हमारा है । हमारे यहाँ आने से पूर्व यह प्रदेश वीरान पड़ा था ।फिर हम खटिया पर पड़े-पड़े गुलामी के जीवन में कराहते क्यों मरें ? इससे तो एक स्वाधीन क्षत्रिय की भाँति अपनी मातृ-भूमि की स्वतंत्रता जी बलि-वेदी पर अपने को भेंट कर देना श्रेयकर व जीवन को सफल बनाना होगा ।
जब दूलहराय को राव मेदा की सैनिक तैयारी का पता चला तो वह भी अपने चार हज़ार सैनिकों को लेकर युद्ध करने आ गया । कतिपय मध्यस्थ सरदारों ने दूलहराय को युद्ध न करने की मंत्रणा दी और कहा महाराज जिन परगनों को आपने हम लोगों के खून को पानी की तरह बहाकर प्राप्त किया है, आप उन पर ही संतोष कर लें । युद्ध-भूमि से लौट चलें । परंतु दूल्हाराय को अपनी शक्ति पर गर्व एवं विश्वास था और इसके साथ ही वह छल-कपट की नीति में भी निपुण था । राव मेदा की सैनिक तैयारी देखकर [दूलहराय]] ने युद्ध की नीति का त्याग कर छदम नीति से विजय प्राप्त करने की सोची । दूलहराय ने मीणा सरदारों से कहा कि मैं युद्ध करने नहीं आया हूँ वरन कुलदेवी के दर्शन करने आया हूँ । आपके अनुरोध पर मैंने युद्ध करने का इरादा त्याग दिया है । आप मुझे जमवाय माता के दर्शन करने की अनुमति दे दें ।
भोले मीणा सरदारों ने कछवाहा नरेश दूलहराय के वचनों पर विश्वास कर उसे देवी दर्शन की अनुमति प्रदान कर दी । उसे मीणा सैनिकों के मध्य से देवी के मंदिर में जाने का रास्ता दे दिया । दूलहराय ने योजनाबद्ध तरीके से मीणा सरदारों पर धावा बोल दिया । दूलहराय के विश्वासघात पर मीणों को बड़ा क्रोध आया और वे मांच की स्वतंत्रता के लिए कछवाहा नरेश के सैनिकों पर टूट पड़े । दोनों ओर से भयंकर युद्ध लड़ा गया ।दूलहराय को उसकी कृतघ्नता का सबक सिखाने की नीयत से मीणों ने राजपूत सैनिकों को निर्दयता से मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया । राजपूत सरदारों ने [दूलहराय]] को पुनः युद्ध बंद करने की सलाह दी । परंतु वह साम्राज्यवादी क्षुधा से पीड़ित था । अपनी सैनिक शक्ति पर विश्वास करते हुए उसने युद्ध जारी रखा । युद्ध करते समय वह घोड़े से गिर पड़ा और मौत के घाट उतार दिया गया ।
कर्नल टॉड ने लिखा है कि विरोधियों की सेना अधिक होने के कारण दूलहराय की सेना को परास्त होना पड़ा । यद्ध्यपि दूलहराय बड़ी वीरता से लड़ा लेकिन अंत में वह युद्ध में मारा गया । उसके मरते ही उसकी सेना भाग छूटी । मीणाओं के विजय-घोष से पृथ्वी डगमगाने लगी ।

मांच के प्रथम युद्ध में विजयी दूलहराय ने अजमेर की राजकुमारी मरोनी से विवाह कर लिया था । यह उसकी दूसरी रानी थी । मांच के दूसरे युद्ध में मरोनीदूलहराय के साथ ही थी । वह उस समय गर्भवती थी । युद्ध-भूमि से वह बड़ी कठिनाई से भागने में सफल रही और अजमेर जाकर अपने पिता के पास रहने लगी । इसी की कोख से कांकिल देव का जन्म हुआ जो आगे चलकर आमेर का राजा बना ।

मांच का प्रथम युद्ध

मांच का प्रथम युद्ध

राजपूत राजा दूल्हाराय ने गणगौर के अवसर पर मीणाओं के मांच राज्य पर अचानक आक्रमण कर दिया । मीणा सरदारों को जब इस आक्रमण का पता चला तो उन्होंने मुकाबला करने का निर्णय किया । परन्तु उनके सामने दौसा के बड़गूजरों व भांडारेज के मीणाओं की पराजय का उदहारण पेश था ।अतः युद्ध स्थल में उतरने से पूर्व उन्होंने अपने को संघठित किया और दौसा के बड़गूजरों व भांडारेज के मीणाओं को सहयोग देने के लिए आमंत्रित किया । उनको साथ लेकर मांच के मीणाओं ने दूल्हराय पर धावा बोल दिया । दूल्हराय के सैनिक भारी संख्या में मारे गए और संघर्ष में दूलहराय को पराजय का मुँह देखना पड़ा ।
दूलहराय आहत होकर अपने घोड़े से युद्ध-भूमि पर गिर पड़ा । राजा स्वयं युद्ध में मूर्छित हो गया । राजा को मूर्छित देखकर मीणों ने बड़ी खुशियाँ मनाई । विजयी मीणों ने मदिरा का पान किया तथा जीत का जश्न मनाया । दूलहराय की परास्त सेना में मोरा राजा की सेना भी सम्मिलित थी ।
मूर्छित अवस्था में राजा दूलहराय को अपनी कुलदेवी जमवाय माता के दर्शन हुए  जमवाय माता ने राजा को कहा- "डरो मत चढ़ाई करो । तुम्हारी मृत सेना पुनः सजीव हो जायेगी और तुम्हारी जीत होगी ।" कुलदेवी से ऐसा सुनकर दूलहराय मूर्छित अवस्था से उठा और उसने माता के दर्शन किये । देवी की प्रेरणा से उत्साहित होकर उसने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया जहाँ कि मीणें विजयोल्लास में मदिरा पान कर जश्न मना रहे थे । नशे में चूर मीणें दूलहराय के इस आकस्मिक आक्रमण का मुकाबला नहीं कर सके । भयभीत होकर वे तितर-बितर हो गए । परिणामतः दूलहराय का मांच के दुर्ग पर अधिकार हो गया ।
दूलहराय ने अपने ईष्ट देव व पूर्वज भगवान् राम के नाम पर मांच का नाम रामगढ़ रखा ।युद्ध-भूमि में जहाँ राजा मूर्छित हुए थे, वहीँ पर उन्होंने जमवाय माता का मंदिर बनवाया । वर्तमान जमवारामगढ़ जयपुर से लगभग 34 कि.मी. उत्तर पूर्व में स्थित है ।

संदर्भ

1.    मुनि मगन सागर: मीन पुराण भूमिका पृष्ठ 71
2.    राघवेंद्रसिंह मनोहर: राजस्थान में खँगारोतों का इतिहास पृष्ठ 3-4
3.    हनुमान प्रसाद शर्मा: नाथावतों का इतिहास पृष्ठ 16-17
4.    जयपुर वंशावली पृष्ठ 16-17
5.    कर्नल टॉड: एनाल्स एण्ड एंटीक्विटिस ऑफ़ राजस्थान ज़ि.2
6.    चारण रतनू: राजस्थान का इतिहास
7.    जगदीश सिंह गहलोत: कछवाहा राज्य का इतिहास पृष्ठ 50
8.    हनुमान प्रसाद शर्मा: नाथावतों का इतिहास पृष्ठ 16-17
9.    जगदीश सिंह गहलोत: कछवाहा राज्य का इतिहास पृष्ठ 50
10.  हनुमान प्रसाद शर्मा: नाथावतों का इतिहास पृष्ठ 16
11.  कर्नल टॉड: एनाल्स एण्ड एंटीक्विटिस ऑफ़ राजस्थान ज़ि.2


मानगढ़ धाम शहादत के सौ साल’

मानगढ़ धाम शहादत के सौ साल

File:Mangarh.jpg राजस्थान मेँ शौर्य गाथाएँ जनजातियोँ के नाम आदिकाल से ही रही हैँ। स्वतंत्रता संग्राम मेँ भी इनका योगदान अतुलनीय रहा। गुजरात से आकर राजपुताना की डूंगरपुर स्टेट के गाँव बड़ेसा (बंसिया ) में बसे बसर बंजारा ओए लाटकी के घर 20 दिसम्बर 1858 को एक बालक पैदा हुवा जिसका नाम गोविंदा रखा गया अपनी छोटी उम्र में ही गोविंदा इदर ,पालनपुर सिरोही प्रतापगढ़ मंदसोर मालवा और मवाद के दूर दूर आंतरिक आदिवासी गाँवो में घूम चुके गोविंदा ने आदिवासियों की गरीबी हालत देखि तो उसके दिल में समाज सुधर की भावना जगी इनकी सादी गनी से हुई राजगिरी को गुरु बनाया तब से इनका नाम गोविन्द गिरी हुवा 1881 में सुन्थ रामपुर गोदरा गुजरात रहते हुए पत्नी का देहांत दूसरी सादी की 1911 में अपने गाँव बेडसा में धुणी स्थापित कर धार्मिक व समाज सुधर के कार्य करनी लगे बेडसा मुख्या केंद्र बन गया हजारो आदिवासी उह्की धुणी पर आने लगे भयभीत होकर अप्रेल 1913 में डूंगरपुर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया आग लगा दी उनका सामान जप्त कर लिया गोली बरी की जिसमे 14 आदिवासी मरे गए ..धमकाया डूंगरपुर से देश निकला दे दिया वाह से इडर राज्य के रोजाड़ा गाँव आ गए वाह इदर के रजा ने गिरफ्तार करना चाह गोविन्दगिरी और उनके सिष्य सुरक्सताम्क स्तिथि प्राप्त करने के लिए राशन पानी की व्यवस्थ कर मानगढ़ आ गए आदिवासियों को मानगढ़ आने का संधेश भिजवाया आदिवासी जुटने लगे रियासते आदिवासियों को कुचलने के अंग्रेजो के कान भरने लगी 30 अतुम्बर 1913 को सुन्थ के जमादार युसूफ खान दुवारा ज्यादती करने पर कतल कर दिया गया जिसका आरोप गोविन्द गिरी के सिष्य पूंजा पर लगाया मौका देख रियासतों व अंग्रेजो ने आदिवासियों को कुचलने का मानस बना लिया |
आदिवासी राजस्थान मेँ डूँगरपुर,बाँसवाड़ा और गुजरात सीमा से लगे पँचायतसमिति गाँव भुकिया (वर्तमान आनन्दपुरी) से 7 किलोमीटर दूर ग्राम पँचायत आमदरा के पास मानगढ़ पहाड़ी पर 17 नवम्बर,1913 (मार्ग शीर्ष शुक्ला पूर्णिमा वि.स. 1970) को गोविन्द गुरू के सानिध्य मेँ जुटे आदिवासियो पर अंग्रेज कर्नल शैटर्न की अगुवाई मे 7 रियासती फोजे व सात अंग्रेज बटालियो ने गोलीबारी कर इस जनसंहार को अंजाम दिया सरकारी आंकड़ो के अनुसार 1503 आदिवासी शहीद हुए कुछ अन्य सुत्रोँ ने यह संख्या कई गुना मानते है घायलो की संख्या तो असंख्य थी । गोविन्द गुरु व उनके खास शिष्यो को गिर्फतार कर लिया गया उनको फांसी की सजा सुनाई गई लेकिन संभावित जनविद्रोह को देखते हुए बीस साल की सजा मे बदला गया । उच्च न्यायालय मेँ अपिल पर यह अवधि 10 वर्ष की गई लेकिन बाद मे 1920 मे ही रिहा कर दिया लेकिन सुँथरामपुर (संतरामपुर), बांसवाड़ा,डुँगरपुर एवं कुशलगढ़ रियासत से देश निकाला देकर उनके प्रवेश को प्रतिबंधित किया गया ।17-11-1913 को मानगढ़ (बांसवाड़ा ) अंग्रेजो से लड़ते हुए बलिदान देने वाले आदिवासी शहिद का वंशज श्री सोमा पारगी । इनकी उम्र 86 साल है इनके दादा जी ने यह बलिदान दिया यह भुखिया गाँव (आनन्दपुरी) जिला बांसवाड़ा राजस्थान मे है यह धाम तीन बड़े आदिवासी राज्यो गुजरात,राजस्थान और मध्यप्रदेश के बीच मे पड़ता है । गोविन्द गुरु (बनजारा) के आरम्भिक साथियो पूँजा धीर जी(पूँजा पारगी), कुरिया दनोत, सुरत्या मीणा, नानजी, सोमा परमार, तोता भील गरासिया,कलजी,रामोता मीणा, थानू लाला, जोरजी लखजी लेम्बा,दीपा गमेती,दित्या कटारा,गल्या बिसन्या डामोर,हादू मीणा,सुवाना खराड़िया,दगड़्या सिंगाड़िया,कड़सा डोडला,जोरिया भगत,कलजी भीमा,थावरा,आदि थे ये गुरु की सम्प सभा(धुणी) के माध्यम से भील,गरासिया,मीणा,डामोर व भीलमीणा अर्थात सम्पूर्ण आदिवासियो मे एकता,शोषण के खिलाफ जागृति, अधिकार के लिए संघर्ष और जागीरदार और विदेश शासन से मुक्ति के लिए कार्य कर रहे थे जगह जगह सम्प सभा गठीत की गई आदिवासियो की इस जागृत को रियासती शासक सहन नही कर पा रहे थे और वो अंग्रेजो को आदिवासियो के दमन के लिए बार बार उगसा रहे थे 6 नवम्बर 1913 को पाचवी महु डिवीजन के जनरल ऑफीसर कमांडिग ने सूंथ रियासत के आदिवाषियो का नियनत्रण से बाहर होने की खबर चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को सूचना भेजी,इस पर 104 वेल्सले रायफल्स की एक कम्पनी व एक मशीनगन सहित पैदल सेना तैयार रहने की हिदायत दी ,8 नवम्बर को मेवाड़ भील कोर खैरवाड़ा का कमाण्डेंट जे पी स्टोक्ले कोर की दो सशस्त्र कम्पनियो को लेकर मानगढ़ के लिए रवाना हुआ 11 नवम्बर को भुखिया गांव मानगढ़ के पास पहुचा,बड़ोदा डिवीजन से मेजर वेली के नेतृत्व मे 104 वेल्सले रायफल्स की एक सशस्त्र कम्पनी 12 नवम्बर को प्रात 9:45 बजे सूँथ पहुची,
12 नवम्बर की रात को ही सातवी जाट रेजीमेन्ट की एक डिटेचमन्ट मशीनगन सहित सूँथ पहुची बाद मे नवी राजपूत रेजीमेन्ट की एक कम्पनी पहुची इन अंग्रेजो की सात बटालिनो के अलावा सात देशी रियासतो के सैनिको का नेतृत्व करने के लिए कडाना का ठाकूर भीम सिंह व गढ़ी का जागीरदार राव हिम्मत सिह पहुचे,मेवाड़ राज्य की एक घुड़सवार पल्टन भी पहुच गई " मानगढ़ ऑपरेशन" के लिए नार्दन डिवीजन के कमिश्नर आर पी बोरो ने फौजी टूकड़ियो के मानगढ़ पहुचने के लिए रूट चार्ट तैयार करवाया जो सभी फोजी टूकिड़यो को दे दिया गया इस प्रकार 6 से 12 नवम्बर तक फौजी दस्ते मानगढ़ पहुचते रहे 12 नवम्बर को शाम आम्बादरा गांव मे अंग्रेज अधिकारी हडसन,हेमिल्टन एवं स्टोक्ले के साथ गौविन्द गुरू के प्रतिनिधिमंडल के बीच असफल समझौता वार्ता हुई गौविन्द गुरू ने जब तक मांगे न मानी जाये तब तक मानगढ़ पर ही जमे रहने का निर्णय आदिवाषियो को सुनाया
14 नवम्बर को एक बार फिर गोविन्द गिरी ने मांगे मानने के लीए अंग्रेज अधिकारियो को पत्र लिखा उधर बांसवाड़ा,डूंगरपुर,सूँथ व इडर के शासक और राजपूत जागीरदार बैचेन थे की अंग्रेज अधिकारी आदिवासियो का दमन करने मे क्यो देरी कर रहे है वो बार बार उन अधिकारियो को कार्यवाही करने के लिए निवेदन कर रहे थे आखिर 15 नवम्बर को रणनीति तैयार की गई 16 नवम्बर को मेजर वेली ने स्टोक्ल व आइसकोह को मानगढ़ पर्वत पर जाने वाले रास्तो की जानकारी हेतु भेजा गया 17-11-1913 को कमिश्नर के आदेश पर सुबह 4 बजे फौजी दस्ते मानगढ़ पर हमले के लिए प्रस्थान किया और चढ़कर आक्रमण कर दिया मान की पहाड़ी के सामने दूसरी पहाड़ी पर अंग्रेजी फौजो ने तोप व मशीन गनें तैनात कर रखी थी एवं वही से गौला बारूद दागे जाने लगे । इस प्रकार इस आदिवासी क्रांति को निर्दयता पूर्वक कुचल दिया गया |
राजस्थान के महान क्रांतिकारी मोती लाल तेजावत के नेतृत्व मेँ भूला -बिलोरिया (जिला सिरोही,राजस्थान ) मेँ भी आदिवासी मीणा, भील,गरासियाओ ने अंग्रेजी व रियासती फौजो के साथ संघर्ष करते हुए सन 1922 में 800 आदिवासी शहीद हुए थे । घटना के चश्मदीद गवाह गोपी गरासिया ने इसका हाल सिरोही के साहित्यकार सोहन लाल को सुनाया था हरी राम मीणा आई पी एस व साहित्यकार उस आदिवासी से कई वर्षो पहले मिलने भी गये थे पर जब तक उसका देहान्त हो चुका था । पर सँयोग से भूला व बिलोरिया के जुड़वां गांवो मे घुमते हुए मरणाअवस्था के नान जी भील व सुरत्या गरासिया इस घटना का हाल सुनाया था पर विडमना देखो गौरीशँकर हीराचन्द औझा इतिहासकार का जन्म रोहिड़ा कस्बे मे हुआ था जो भूला-बिलोरिया गांव जहाँ यह आदिवासी बलिदान की घटना हुई थी वहाँ से मात्र 7 किलोमीटर दूर था पर फिर उन्होने कही भी इस घटना का जिक्र तक नही किया । क्योकि ये ठाकूर रघुनाथ सिह सामन्त थे बाद मे उदयपुर महाराज की सेवा मे रहे । कमलेश जी ऐसी ही एक घटना पालचिशरिया (गुजरात) मेँ घटित हुई थी जहाँ 1200 आदिवासी अंग्रेज व रियासती फौजो से लड़ते हुए थे जिनको अमानवीय तरिके से एक साथ एक कुए मे डालकर दफना दिया गया था । मनुवादियो ने आदिवासियो के इतिहास को दबा दिया इसका बड़ा उदाहरण है महान इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्दा ओझा जिसका जन्म गांव रोहिड़ा (सिरोही ) जो भुला बिलोरिया ( सिरोही ) जहां 800 आदिवासियो (मीणा,भील और गरासिया) ने अंग्रेज व रियासती फौज से लड़ते हुए बलिदान दिया था से महज 7 किलोमीटर की दूरी पर होने पर भी उन्होने अपनी इतिहास पुस्तक मे जिक्र तक नही किया यह उनकी मनुवादी सोच का ही परिणाम था ।

उस महान शहीद को नमन ! नेपथ्य मे डाल दिया हमारे आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियो को पर हम भी भूल गये उनके त्याग और इतिहास मेँ जगह और सम्मान दिलाने के कार्य को यह हमे करना है । आश्चर्य की बात तो यह थी की इतना बड़ा हत्यकांड जो की जलियावाला बाग से भी चार गुना वीभत्स था की उपेक्षा राष्ट्रीय स्तर पर हुई । किसी भी तथाकथित सभ्य समाज की संस्था व लेखको ने दो शब्द भी नही लिखे क्या आदिवासियो का देश पर किया बलिदान बलिदान नही ? शहादत को सादर श्रध्दांजली !!!!

लक्ष्मी नारायण झरवाल (मीणा) साहब की किताब