Saturday 16 April 2016

मीना बाहुल्य क्षेत्र लालसोट

लालसोट

File:Lalsot.jpg


बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि देश के महानतम बौध्द स्तूपों मेँ कभी लालसोट (जिला दौसा राजस्थान) के बौध्द स्तूप की भी
 गणना हुआ करती थी । आज जहां मुसलमानों ने कब्रगाह बना रखे है और जिसे इमाम बाड़ा नाम दे रखा है । किसी समय 
महात्मा गौतम बुध्द के पावन अवशेषों की स्मृतियों का विशाल बौध्द स्तूप था । इस स्थान पर बने विशाल बौध्द स्तूप का
 मुख्य भवन तो नष्ट हो चुका है परन्तु कई बड़ी बड़ी छतरियों के भग्नावशेष अभी भी दिखाई देते है ।
ब्रजमोहन द्विवेदी ने लालसोट के इतिहास मे इस स्थान के बारे मे लिखा है । कुछ वर्ष पूर्व श्रीलंका के भारत स्थित राजदूत कुछ
 प्राचीन दस्तावेजों की पाण्डुलिपियों सहित लालसोट आये थे । इस प्रसिध्द बौध्द स्तूप की वर्षोँ से उपेक्षा और दुर्दशा देखकर उन्हें 
अपार मानसिक पीड़ा हुई थी । लालसोट में अशोक कालीन छतरी भी है । लालसोट मेँ बौध्द स्तूप मिलने से मान्यता स्थापित
 होती है कि पिप्पलिवन 
के मौर्यो ने बुध्द की चिता भस्म के अवशेषो को रेढ (निवाई के पास जिला टौँक) जहां बुध्द धर्म से संबंधित पात्र मिले है । यहाँ 
से चिता भस्म का कुछ अंश या सम्पूर्ण अंश तत्कालिन समय मे लालसोट में स्थानान्तरित हुए । संभवतः पिप्पलिवन के मौर्यो
 ने चिता भस्म के अंशो को बाटकर एक से अधिक स्थानों पर तत्कालिन समय अथवा कालान्तर में बौध्द स्तूप बनाये गये थे ।
 राजस्थान के जिला दोसा के भांडारेज जहाँ भाभड़ा गोत्र के मिनाओ का लम्बे समय तक शासन रहे मेँ भडान माता के मंदिर के
 प्राँगण मैँ बौध्द स्तूपों के मुंडेर तथा स्तम्भ मिले है । भांडारेज से प्राप्त बौध्द स्तूपोँ के पुरावशेष लालसोट के समकालिन है ।
उक्त सभी क्षेत्रो के मीना प्राचीन शासक रहे है मौर्यो के पुर्वज महाभारत कालिन
 राजा मोरध्वज(जिसे मीनावंशी शासक मानते है) की मोरा नगरी या मोरागढ़ नादौती जिला करौली राजस्थान मे है इसी प्रकार
 मीना आदिवासियो की प्राचीनतम राजधानी विराट नगर का भी महात्मा बुध्द व मौर्यो का गहरा सम्बंध है मीना मोरा माता 
को कुल देवी भी मानते है और उनमेँ मोर,मोर्य,मोरड़ा,मोरेजा,मुराडा,मुराडिया कई गौत्र भी मोर्यो से सम्बन्ध स्थापित करते है ।
बौध्द धर्म साहित्य में मौर्यों के संबंध में तीन स्थान ज्ञात होते है - 1- पिप्पलिवन, 2- न्योग्रधवन व 3- मोरिय- मोलिय नगर
 इनमे प्रथम व तीसरे स्थान की स्थिति राजस्थान मे पाई जाती है । पिपरावा के समीप कपिलवस्तु की समीपता और प्राप्त 
अस्थि कलश पर शाक्यो द्वारा बौध्द स्तूप बनाये जाने का वर्णन मिलने से पिपरावा को मौर्यो का पिप्पलिवन-पिप्पलिवाहन 
होना मिथ्या प्रमाणित है जनार्दन भट्ट ने बुध्द के अंतिम संस्कार व अस्थि बटवारा के प्रसंग में जो कुछ लिखा है वह 
पिप्पलिवन के मौर्यो के मूल स्थान को जानने के लिए महत्तपूर्ण साक्ष्य है ।डॉ. प्रहलाद मीणा ने अपने शौध्दपूर्ण लेख " 
मौर्य वंश मीन वंशी मीणा क्यों और कैसे ? " मे मोरिय ग्राम को जिला करौली के मोरागढ़ को मानते है ।
 एस पी सिँह ने भी लिखा है कि बुजुर्गो के अनुसार मोरा ग्राम राजा मोरध्वज से भी बहुता प्राचीन है आज का मोरा तो पहाड़ की 
तलहटी मेँ बसा हुआ है किन्तु प्राचीन मोरा गाँव पहाड़ के ऊपर बसा हुआ रहा है जिसके अवशेष आज भी वहां बिखरे पड़े है वहाँ
 मीणाओ की एक शाखा की कुल देवी मोरा माता का भी मन्दिर है ।साथ ही महात्मा बुध्द के अंतिम संस्कार व अस्थि बटवारा
 प्रसंग के अध्ययन से स्पष्ट होता है की पिप्पलिवन आठ जातियों के राज्यों से दूर दराज के क्षेत्र मे था ।
डॉ. प्रहलाद के मतानुसार पिप्पलिवन की भौगोलिक स्थिति मौरेल नदी के तटवर्ती जिला टोंक की निवाई तहसील अन्तर्गत होनी 
चाहिए मौरिल नदी वर्तमान में जिला दौसा के बड़ा गाँव बंधा से होकर हेमल्यावास व कूपावास ग्रामों के पास होती हुई लालसोट
 तहसील की पश्चिमी व दक्षिणी भाग की सीमा बनाती हुई सवाईमाधोपुर जिले मे 
प्रवेश कर जाती है मल्ला मरमट मीणा के 1300 वर्ष पुराने गाँव मलारना चौड़ के पास से होती हुई मलारना स्टेशन से 10 किमी 
दूर हाड़ोती नामक स्थान से बनास नदी मे मिल जाती है जिला जयपुर की चाकसू तहसील व जिला टोंक की निवाई तहसील का 
सीमा क्षेत्र मौरेल को स्पर्श करता है । एक साम्यता मौरेल नदी के बहाव क्षेत्र के आस पास के क्षेत्रों में भी मोरों की बहुलता थी ।
 ऐसे ही पिप्पलिवन मे भी मोरों की बाहुल्यता थी । निवाई का पहाड़ रक्तांचल पर्वत कहलाता है । इस पहाड़ की तलहटी मे
 मल्ला मरमट की गौत्री लोगो का हजारों साल पुराना गांव बरथल स्थित है ।जो मरमट गोत्र के मिनाओ का निकास गाँव माना
 जाता है इस पर एक ऐतिहासिक विरुदावली जनमानस मे प्रचलित है -
" पाल पिपलि पहाड़ कौन हलायौ पान । हाड़ा मरमट जन्मीया बाज्या ढोल निशान ॥ "
पाल पिपलि पहाड़ की तलहटी में पिप्पलिवन होना चाहिए निवाई क्षेत्र में पिप्पलि झिराना व पिराना प्राचीन ऐतिहासिक महत्व के
 गांव है । निवाई क्षेत्र के रेढ़ गांव से तो बौध्दकालिन अवशेष मिले है । पिप्पलिवन में मयुरों(मोरा) की बाहुल्यता, मोरेल नदी के 
तटवर्ती स्थानों पर प्राचीन काल में मयुरोँ की बाहुल्यता, जिला टौँक की निवाई तहसील में पाल पिप्पलि पहाड़ होने की संभावना
,डॉ के एन पुरी द्वारा पुरावशेषों के आधार पर रैढ मेँ बुध्द अस्थियों के अवशेष होने का अनुमान लगाना, मोरण व राजा मोर 
ध्वज का प्राचीनतम मोरागढ़ नगर होना ,मीणो मे मोर,मोरिया,मोरड़ा,मोरी मोरिजा,ताजी और गौत्र होना,अन्तिम मौर्य सम्राट
 चित्रांगद के वंशज राज राजा मान मोर को मीना मानना , लालसोट,भाण्डारेज में बोध्द स्तूप का होना आदि सम्मिलति साक्ष्यों 
से पिप्पलिवन मोरेल नदी के समीपवर्ती क्षेत्र मे होने की मान्यता स्थापित होती है । मौर्य वंश प्राचीनतम मीन गणधारी लोगो 
की एक शाखा थी ।
गंगापुर और सवाई माधोपुर के बीच में खेड़ा की डूंगरी के नीचे खेड़ा बाढ़ गांव बसा हुआ था इस गांव से निकले मौर-मोरये
,मोरड़ा गौत्र के मीणाओ ने मोराड़ा(मुराड़ा) गाँव बसाया मुराड़ा गांव के नाम से मुराड़िया गोत्र का नामाकरण हुआ । रणथम्भौर
 के शासक टाटू मीणा और खेड़ा बाढ़ के मौर मौर्य मीणाओ मे संघर्ष की एक जन श्रुति जानकारी भी मिलती है सूरज जिद्दी ने 
अपनी पुस्तक "रणथम्भौर" में रणथम्भौर के पहाड़ो में मौर मोरड़ा,उषारा गौत्र के आदिवासी मीणों का बसा होने का उल्लेख 
राजा जैता के प्रसंग मे किया है । गढ़ मोरा के समीपवर्ती क्षेत्र मेँ वामनवास के समीप ककराला नामक ग्राम है जिसे कर्क मौर्य
के वंशजो ने बसाया ।
कांकरवाल गोत्र के मीणा का निकास ककराला से बतलाया जाता है इनकी कुलदेवी मोरा माता है ककराला का प्राचीन नाम
ककराल गिरी था रणथम्भौर के राजा हम्मीर के दिग्विजय अभियान में ककराल गिरि का नाम आता है लालसोट के शासक 
और प्राचीनकाल से इस क्षेत्र मे बसे घुणावत गौत्र के मीणाओ की कुल देवी भी मोरा माता है जिसका स्थान घुमणा गाँव मे है ।
 लालसोट के पास देवली इनका प्राचीन गांव है । बाद मे लालसोट से निकले मीणा लालसोट्यो व लोटन कहलाये । इन सब 
तथ्यो से सिन्धुघाटी के मीन गणचिन्ह लोगो, तमिल व द्रविड़ शब्द नामधारी मीना लोगो,महाभारत के मत्स्यो(मच्छा,मीना,
मीणा),वर्तमान मीणा आदिवासियो का बुध्द और मौर्य वंश से प्रगाढ़ और कुटुम्भिय 
सम्बन्ध जरुर रहा है ।
जैन मुनि मगन सागर ने सन 1937 मेँ लिखा है कि जैन लेखको ने चन्द्रगुप्त को मत्स्य राज्य के दक्षिण में स्थित मौर्य राज्य
 का राजकुमार माना है । मौर्य राज्य की राजधानी गढ़ मौरा थी अस्तु हमारी यह धारणा कि महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य राजा 
मौरध्वज की वंशावलियों में से है और महाराज चन्द्रगुप्त भी मीनाओ की ही एक शाखा मे से
 है । इसमें कोई संदेह नहीं है । अतः मोर्य के बौध्द होने के कारण मीनाओ का भी महात्मा बुध्द से सम्बन्ध रहा है ।डॉ. सी एल
 शर्मा ने लिखा है कि रैढ़ (निवाई के पास) से प्राप्त पुरावशेषों से सेल खण्डी से बने बक्से एवं पालिसदार बौध्द धर्म से संबंधित 
पात्र है । इस प्रकार की वस्तुओ की प्राप्ति प्रायः उन्हीँ स्थानों पर हुई है जहां बोध्द धर्म का बोलबाला एवं प्रभाव था ।
डॉ. केदार नाथ पुरी ने भी इन पात्रोँ एवं बक्सों का अवलोकन कर यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि इस प्रकार के पात्र
 उन स्थानों पर मिलते है जहां भगवान बुध्द की अस्थियाँ रखी जाती थी । अतः यह कहा जा सकता है कि मीणा आदिवासी 
बहुल यह मोरेल नदी का क्षेत्र बोध्द धर्म के प्रभाव व मोर्यो से सम्बन्धित प्रमुख क्षेत्र था ।पुष्कर से भी महात्मा बुध्द का तालुक 
रहा है लालसोट से लगभग 40 किमी दूर प्राचीन व ऐतिहासिक स्थल चाकसू (जयपुर) से
 बौध्द की प्राचीन प्रतिमा केवल सिर की आकृति के रुप मेँ ही मिली, सरिस्का वन क्षेत्र
(मत्स्य प्रदेश) से भगवान बुध्द की प्रतिमा प्राप्त हुई है । डॉ. शंभू लाल दोषी व डॉ. नरेन्द्र व्यास ने लिखा है कि यह अवश्य है कि
 मीणों का उल्लेख 500 ई.पूर्व मिलता है । पर ये इस स्थल के इससे भी प्राचीन निवासी है ।
यह इतिहास बताता है कि दौसा के पूर्व 18 किमी मोरेल नदी का उद्गम इस नदी के किनारे मोरन शहर का विकास हुआ । यह
 शहर बाद मे चलकर राजा मौर्यध्वज के मौर्य साम्राज्य की राजधानी बना इस शहर के नागरिक मोरेजा या मोरेड़ा कहलायत थे । 
इसी वंश के किसी छोटे मुखिया के चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म हुआ जिसने एक विशाल मौर्य साम्राज्य की नीँव डाली और उसकी 
पुत्र
 अशोक महान ने उसे विशाल बनाया और बौध्द धर्म अपनाया जिसका प्रभाव उसके
 वंशज लोगो पर भी पड़ा । अशोक ने अपने प्राचीन वंश मीन (मत्स्य) की प्राचीन राजधानी विराट नगर (जयपुर) मे अपना 
सातवा धम्म शिला लेख लगवाया । बहुजन वर्ग मे बौध्द धर्म का काफी प्रभाव था पर पुष्यमित्र शुंग ने सब कुछ तहस नहस कर 
दिया बौध्द धर्म को संरक्षण देने वाले मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहदत्त का वध कर दिया । बृहदत्त के किसी वंशज चित्रांगद मौर्य
 ने चित्तोड़ की स्थापना कर राज्य स्थापित किया ।
चित्तोड़(राजस्थान) के अंतिम राजा मानमौर जिसे कई ग्रन्थो मे मीना बताया गया है शायद इसलिए कि मौर्य वंश भी मूलतः
 मीन वंश की एक शाखा थी । राजा मानमौर ने बप्पा रावल को धर्म भानजा बना कर रखा परन्तु बाद मे बप्पारावल ने ही
 मानमौर की हत्या कर सत्ता ली जिसमे आगे जाकर कुभ्भा,सांगा,उदय सीँह व महाराणा प्रताप हुए । इस प्रकार मौर्य अपने मूल
 स्थान मे आकर वापिस मीन वंश मे ही विलिन हो गये मीन वंश बहुजनो से भी सम्बध रहा है पर आज मीन वंश से कई जातियाँ
 बन गई जो अपने मूल को भूल गई ।यह सब आप सब 
आदिवासी भाइयो का प्यार और समर्थन है जिसकी ऊर्जा से थोड़ा बहुत लिखकर आदिवासी युवाओ को जागृत करने का एक 
छोटा सा प्रयास कर पा रहा हुँ । यह सब हमारा सम्मिलित प्रयास है जो सतत बना रहे ।

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