Sunday 17 April 2016

धराड़ी प्रथा व पर्यावरण संरक्षण एवं धराड़ी प्रथा की पर्यावरण संरक्षण में प्रासंगिकता

धराड़ी प्रथा व पर्यावरण संरक्षण

प्राचीन कल में जिस क्षेत्र में जो कबीला रहता था, उस क्षेत्र में उसकी धराड़ी (वृक्ष) प्रचुर मात्रा में पाए जाने के कारण इलाका हरा भरा रहता था | धराड़ी के रूप में को प्रत्येक परिवार को वृक्ष लगाना अनिवार्य था |जिससे उस कबीले के इलाके में वृक्षों की सघनता पाई जाती थी |हरा भरा पर्यावरण व वृक्षों की सघनता से शुद्धवातावरण रहता और खूब बारिश होती थी |     आदिवासिओं की इस प्रथा से प्रेरणा लेकर आक्रान्ताओं के धर्म में भी कई वृक्षों को पवित्र मानने की प्रथा चल पड़ी, जो अभी भी जारी है तथा कई आर्य एवं आर्यातर जातियों ने भी इस प्रथा को अपनाया |पीपल वृक्ष की महत्ता आदिवासियों की इस कहावत से प्रकट होती है :-
पीपल काट हल घड़े,बेटी बेच कर खाय | सींव फोड़ खेती करे,वह जड़मूल सुन जाय ||   अतः यह प्रथा पर्यावरण संरक्षण की अनूठी मिसाल है |मीणा आदिम कबीलों की यह परम्परा आज भी पर्यावरण संरक्षण में प्रासंगिक व उपयोगी है, इसके पालन से पर्यावरण को बचाया जा सकता है |हम इसको भूलते जा रहे है, जिसके दुस्परिनाम सामने आ रहे है |आदिवासी संस्कृति समृद्ध परियावरण से सम्बद्ध रही है,इस संस्कृति के प्रभाव से ही तो भारतीय दर्शन अर्थात हमारे देश का जीवन दर्शन पर्यावरण रक्षा का दर्शन रहा है |प्राकृतिक संसाधनों में जल,जंगल,और जमीन तीनों ही प्रमुख तत्व है,इन संसाधनों से मानव जो कुछ प्राप्त करता रहा, उसकी क्षति पूर्ति का प्रबंध भी सामानांतर रूप से होता था | भारतीय दर्शन के अनुसार कृतग्य भाव से दोहन और पुर्नभरण की नीति के अनुसार धारित आर्थिक विकास हो तभी भारत का कल्याण होगा और परिस्थितिकी एवं पर्यावरण संरक्षण हो सकेगा |
आज से हजारों साल पूर्व आदिवासियों ने धराड़ी प्रथा के रूप में पर्यावरण के प्रति अपने उत्तरदायित्व का अनुभव किया था |आवश्यकता इस बात की है की आदिवासी ही नहीं, सब लोग प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करे,निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए उसको नुकशान न पहुंचाए |हमारे देश में प्रगति का अर्थ प्रकृति का विनाश माना जाने लगा है |हमारे आदिवासी कबीले भी अपनी धराड़ी प्रथा को भूलकर इस मुहीम में शामिल हो रहे है |अपनी आदिम परम्परा को जीवित रखना होगा विकाश की अंधी दौड़ को छोड़कर पर्यावरण को बचाना होगा |अपनी अच्छी विरासत को भुलाये बिना और प्रकृति के सौन्दर्य,ताजगी और शुद्धता को नष्ट किये बिना ही विकास करना होगा |

धराड़ी प्रथा की पर्यावरण संरक्षण में प्रासंगिकता :-

धराड़ी प्रथा (प्रकृति प्रेम ) जीतनी उपयोगी पूर्व में थी उतनी ही आज भी हैं |इस आदिम परम्परा को पुर्नजीवित कर पर्यावरण संरक्षण किया जा सकता है |आदिवासी जंगल के वासी रहे है |उनको पर्यावरण संरक्षण करना आता है |यह उनकी परम्परा उनके खून में निहित हैं |किसी आदिवासी को किसी आवश्यकता के लिए वृक्ष काटना है, तो उसको जानकारी है, की किस तरह से वृक्ष को कहाँ से काटा जाये,ताकि पुनः बढ सके,उसकी बढोत्तरी रुके नहीं या अवरुद्ध न हो, आदिवासियों पर यह आरोप लगाकर, की जंगल और जंगली जानवरों को नष्ट करते हैं जंगलों से बेदखल किया जा रहा हैं |यह उनके साथ अन्याय है, क्योंकि आदिवासी ही जंगल व जंगली जानवरों का असली संरक्षक है |   उसकी धराड़ी प्रथा को उचित सम्मान देकर अपनाया जाना चाहिय, साथ ही आदिवासी मीणा कबीलों द्वारा भी इस परम्परा के प्रति अपने लोगों में भी जागरूकता लानी होगी |हर गोत्र (कबीला )को अपने परिवार का हर सुभ कार्य का सुभारम्भ कुल वृक्ष (धराड़ी) को लगाकर ही करें,जिससे वृक्ष रोपण एक सामाजिक परम्परा बनी रहेगी|यह प्रथा समाज एवं धर्म से जुडी होने के कारण हर कोई इसके उलंघन का साहस नहीं जुटा पायेगा और पर्यावरण संरक्षण का कार्य आसानी से किया जा सकेगा,और हमारी अनूठी परम्परा भी बची रहेगी |इससे अन्य समाजों को भी प्ररेणा मिलेगी और हम सब मिलकर भारत को पुनः हरा भरा कर पाएंगे |


जागो आदिवासी मित्रों, जागो !
देश की प्रगति में,
हाथ बटाएँ,
अपनी परम्परा एवं
संस्कृति को बचाएं |
धराड़ी रूप में वृक्ष,
लगाकर धरा सजाएँ,
समृद्ध संस्कृति एवं देश धन,
प्रकृति को बचाएं |
मात्र शक्ति नारी रूप
का मान बढ़ाये
हो न अपमान ,शोषण
ऐसा समाज बनाये
आओ एक-एक पेड़ लगाकर,
इस धरा को स्वर्ग बनायें,
स्वार्थ छोड़कर, रुख मोड़कर,
पर्यावरण रक्षण रूपी,
धराड़ी प्रथा पुनः अपनाएं |

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