मानगढ़ धाम शहादत के सौ साल’

आदिवासी राजस्थान मेँ
डूँगरपुर,बाँसवाड़ा और गुजरात सीमा से लगे पँचायतसमिति गाँव भुकिया (वर्तमान
आनन्दपुरी) से 7 किलोमीटर दूर ग्राम पँचायत
आमदरा के पास मानगढ़ पहाड़ी पर 17 नवम्बर,1913 (मार्ग
शीर्ष शुक्ला पूर्णिमा वि.स. 1970) को गोविन्द गुरू के सानिध्य
मेँ जुटे आदिवासियो पर अंग्रेज कर्नल शैटर्न की अगुवाई मे 7 रियासती
फोजे व सात अंग्रेज बटालियो ने गोलीबारी कर इस जनसंहार को अंजाम दिया सरकारी
आंकड़ो के अनुसार 1503 आदिवासी शहीद हुए कुछ अन्य
सुत्रोँ ने यह संख्या कई गुना मानते है घायलो की संख्या तो असंख्य थी । गोविन्द
गुरु व उनके खास शिष्यो को गिर्फतार कर लिया गया उनको फांसी की सजा सुनाई गई लेकिन
संभावित जनविद्रोह को देखते हुए बीस साल की सजा मे बदला गया । उच्च न्यायालय मेँ
अपिल पर यह अवधि 10 वर्ष की गई लेकिन बाद मे 1920 मे
ही रिहा कर दिया लेकिन सुँथरामपुर (संतरामपुर), बांसवाड़ा,डुँगरपुर
एवं कुशलगढ़ रियासत से देश निकाला देकर उनके प्रवेश को प्रतिबंधित किया गया ।17-11-1913 को मानगढ़ (बांसवाड़ा )
अंग्रेजो से लड़ते हुए बलिदान देने वाले आदिवासी शहिद का वंशज श्री सोमा पारगी ।
इनकी उम्र 86 साल है इनके दादा जी ने यह
बलिदान दिया यह भुखिया गाँव (आनन्दपुरी) जिला बांसवाड़ा राजस्थान मे है यह धाम तीन
बड़े आदिवासी राज्यो गुजरात,राजस्थान और मध्यप्रदेश के
बीच मे पड़ता है । गोविन्द गुरु (बनजारा) के आरम्भिक साथियो पूँजा धीर जी(पूँजा
पारगी), कुरिया
दनोत, सुरत्या
मीणा, नानजी, सोमा परमार, तोता भील गरासिया,कलजी,रामोता
मीणा, थानू
लाला, जोरजी
लखजी लेम्बा,दीपा गमेती,दित्या कटारा,गल्या बिसन्या डामोर,हादू
मीणा,सुवाना खराड़िया,दगड़्या सिंगाड़िया,कड़सा
डोडला,जोरिया भगत,कलजी भीमा,थावरा,आदि थे ये गुरु की सम्प सभा(धुणी) के माध्यम से भील,गरासिया,मीणा,डामोर
व भीलमीणा अर्थात सम्पूर्ण आदिवासियो मे एकता,शोषण के
खिलाफ जागृति, अधिकार
के लिए संघर्ष और जागीरदार और विदेश शासन से मुक्ति के लिए कार्य कर रहे थे जगह
जगह सम्प सभा गठीत की गई आदिवासियो की इस जागृत को रियासती शासक सहन नही कर पा रहे
थे और वो अंग्रेजो को आदिवासियो के दमन के लिए बार बार उगसा रहे थे 6 नवम्बर 1913 को
पाचवी महु डिवीजन के जनरल ऑफीसर कमांडिग ने सूंथ रियासत के आदिवाषियो का नियनत्रण
से बाहर होने की खबर चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को सूचना भेजी,इस
पर 104 वेल्सले रायफल्स की एक कम्पनी
व एक मशीनगन सहित पैदल सेना तैयार रहने की हिदायत दी ,8 नवम्बर
को मेवाड़ भील कोर खैरवाड़ा का कमाण्डेंट जे पी स्टोक्ले कोर की दो सशस्त्र
कम्पनियो को लेकर मानगढ़ के लिए रवाना हुआ 11 नवम्बर
को भुखिया गांव मानगढ़ के पास पहुचा,बड़ोदा
डिवीजन से मेजर वेली के नेतृत्व मे 104 वेल्सले रायफल्स की एक
सशस्त्र कम्पनी 12 नवम्बर को प्रात 9:45 बजे
सूँथ पहुची,
12 नवम्बर की रात को ही सातवी
जाट रेजीमेन्ट की एक डिटेचमन्ट मशीनगन सहित सूँथ पहुची बाद मे नवी राजपूत
रेजीमेन्ट की एक कम्पनी पहुची इन अंग्रेजो की सात बटालिनो के अलावा सात देशी
रियासतो के सैनिको का नेतृत्व करने के लिए कडाना का ठाकूर भीम सिंह व गढ़ी का
जागीरदार राव हिम्मत सिह पहुचे,मेवाड़ राज्य की एक घुड़सवार
पल्टन भी पहुच गई " मानगढ़ ऑपरेशन" के लिए नार्दन डिवीजन के कमिश्नर आर
पी बोरो ने फौजी टूकड़ियो के मानगढ़ पहुचने के लिए रूट चार्ट तैयार करवाया जो सभी
फोजी टूकिड़यो को दे दिया गया इस प्रकार 6 से 12 नवम्बर
तक फौजी दस्ते मानगढ़ पहुचते रहे 12 नवम्बर को शाम आम्बादरा गांव
मे अंग्रेज अधिकारी हडसन,हेमिल्टन एवं स्टोक्ले के साथ गौविन्द गुरू के प्रतिनिधिमंडल के
बीच असफल समझौता वार्ता हुई गौविन्द गुरू ने जब तक मांगे न मानी जाये तब तक मानगढ़
पर ही जमे रहने का निर्णय आदिवाषियो को सुनाया
14 नवम्बर को एक बार फिर गोविन्द
गिरी ने मांगे मानने के लीए अंग्रेज अधिकारियो को पत्र लिखा उधर बांसवाड़ा,डूंगरपुर,सूँथ
व इडर के शासक और राजपूत जागीरदार बैचेन थे की अंग्रेज अधिकारी आदिवासियो का दमन
करने मे क्यो देरी कर रहे है वो बार बार उन अधिकारियो को कार्यवाही करने के लिए
निवेदन कर रहे थे आखिर 15 नवम्बर को रणनीति तैयार की गई 16 नवम्बर
को मेजर वेली ने स्टोक्ल व आइसकोह को मानगढ़ पर्वत पर जाने वाले रास्तो की जानकारी
हेतु भेजा गया 17-11-1913 को कमिश्नर के आदेश पर सुबह 4 बजे
फौजी दस्ते मानगढ़ पर हमले के लिए प्रस्थान किया और चढ़कर आक्रमण कर दिया मान की
पहाड़ी के सामने दूसरी पहाड़ी पर अंग्रेजी फौजो ने तोप व मशीन गनें तैनात कर रखी
थी एवं वही से गौला बारूद दागे जाने लगे । इस प्रकार इस आदिवासी क्रांति को
निर्दयता पूर्वक कुचल दिया गया |
राजस्थान के महान क्रांतिकारी
मोती लाल तेजावत के नेतृत्व मेँ भूला -बिलोरिया (जिला सिरोही,राजस्थान
) मेँ भी आदिवासी मीणा, भील,गरासियाओ
ने अंग्रेजी व रियासती फौजो के साथ संघर्ष करते हुए सन 1922 में 800 आदिवासी
शहीद हुए थे । घटना के चश्मदीद गवाह गोपी गरासिया ने इसका हाल सिरोही के
साहित्यकार सोहन लाल को सुनाया था हरी राम मीणा आई पी एस व साहित्यकार उस आदिवासी
से कई वर्षो पहले मिलने भी गये थे पर जब तक उसका देहान्त हो चुका था । पर सँयोग से
भूला व बिलोरिया के जुड़वां गांवो मे घुमते हुए मरणाअवस्था के नान जी भील व
सुरत्या गरासिया इस घटना का हाल सुनाया था पर विडमना देखो गौरीशँकर हीराचन्द औझा
इतिहासकार का जन्म रोहिड़ा कस्बे मे हुआ था जो भूला-बिलोरिया गांव जहाँ यह आदिवासी
बलिदान की घटना हुई थी वहाँ से मात्र 7 किलोमीटर दूर था पर फिर
उन्होने कही भी इस घटना का जिक्र तक नही किया । क्योकि ये ठाकूर रघुनाथ सिह सामन्त
थे बाद मे उदयपुर महाराज की सेवा मे रहे । कमलेश जी ऐसी ही एक घटना पालचिशरिया
(गुजरात) मेँ घटित हुई थी जहाँ 1200 आदिवासी अंग्रेज व रियासती
फौजो से लड़ते हुए थे जिनको अमानवीय तरिके से एक साथ एक कुए मे डालकर दफना दिया
गया था । मनुवादियो ने आदिवासियो के इतिहास को दबा दिया इसका बड़ा उदाहरण है महान
इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्दा ओझा जिसका जन्म गांव रोहिड़ा (सिरोही ) जो भुला
बिलोरिया ( सिरोही ) जहां 800 आदिवासियो (मीणा,भील
और गरासिया) ने अंग्रेज व रियासती फौज से लड़ते हुए बलिदान दिया था से महज 7 किलोमीटर
की दूरी पर होने पर भी उन्होने अपनी इतिहास पुस्तक मे जिक्र तक नही किया यह उनकी
मनुवादी सोच का ही परिणाम था ।
उस महान शहीद को नमन ! नेपथ्य मे डाल दिया हमारे
आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियो को पर हम भी भूल गये उनके त्याग और इतिहास मेँ जगह और
सम्मान दिलाने के कार्य को यह हमे करना है । आश्चर्य की बात तो यह थी की इतना बड़ा
हत्यकांड जो की जलियावाला बाग से भी चार गुना वीभत्स था की उपेक्षा राष्ट्रीय स्तर
पर हुई । किसी भी तथाकथित सभ्य समाज की संस्था व लेखको ने दो शब्द भी नही लिखे
क्या आदिवासियो का देश पर किया बलिदान बलिदान नही ? शहादत को सादर श्रध्दांजली !!!!
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